विचार / विमर्श । ( ललित गर्ग ) दावोस में चल रहे वल्र्ड इकनॉमिक फोरम में ऑक्सफैम ने अपनी रिपोर्ट ‘टाइम टू केयर’ में समृद्धि के नाम पर पनप रहे नये नजरिया, विसंगतिपूर्ण आर्थिक संरचना एवं अमीरी गरीबी के बीच बढ़ते फासले की तथ्यपरक प्रभावी प्रस्तुति देते हुए इसे घातक बताया है। आज दुनिया की समृद्धि कुछ लोगों तक केन्द्रित हो गयी है, हमारे देश में भी ऐसी तस्वीर दुनिया की तुलना में अधिक तीव्रता से देखने को मिल रही है। देश में मानवीय मूल्यों और आर्थिक समानता को हाशिये पर डाल दिया गया है और येन-केन-प्रकारेण धन कमाना ही सबसे बड़ा लक्ष्य बनता जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या इस प्रवृत्ति के बीज हमारी परंपराओं में रहे हैं या यह बाजार के दबाव का नतीजा है? इस तरह की मानसिकता राष्ट्र को कहां ले जाएगी? ये कुछ प्रश्न ऑक्सफैम रिपोर्ट एवं प्रस्तुत होने वाले आम बजट के सन्दर्भ महत्त्वपूर्ण हैं, जिनपर मंथन जरूरी है।
ऑक्सफैम रिपोर्ट के कुछ चैंकाने वाले तथ्य है, जैसे देश के एक फीसदी अमीरों के पास 70 फीसदी आबादी के मुकाबले चार गुणा ज्यादा धन है। देश को चलाने के लिए जारी होने वाले बजट 2020 से ज्यादा धन देश के 63 अरबपतियों के पास है। भले ही 2019 में वैश्विक स्तर पर अरबपतियों की कुल संपत्ति में गिरावट दर्ज की गई है लेकिन पिछले एक दशक में अरबपतियों की संख्या में तेजी आई है। इस रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि पूरे विश्व में आर्थिक असमानता बहुत तेजी से फैल रही है। अमीर बहुत तेजी से ज्यादा अमीर हो रहे हैं। साम्राज्यवाद की पीठ पर सवार पूंजीवाद ने जहां एक ओर अमीरी को बढ़ाया है तो वहीं दूसरी ओर गरीबी भी बढ़ती गई है। यह अमीरी और गरीबी का फासला कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है जिसके परिणामों के रूप में हम आतंकवाद को, नक्सलवाद को, सांप्रदायिकता को, प्रांतीयता को देख सकते हैं, जिनकी निष्पत्तियां समाज में हिंसा, नफरत, द्वेष, लोभ, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, रिश्ते में दरारें आदि के रूप में देख सकते हैं। सर्वाधिक प्रभाव पर्यावरणीय असंतुलन एवं प्रदूषण के रूप में उभरा है। चंद हाथों में सिमटी समृद्धि की वजह से बड़े और तथाकथित संपन्न लोग ही नहीं बल्कि देश का एक बड़ा तबका मानवीयता से शून्य अपसंस्कृति का शिकार हो गया है। ऑक्सफैम इंडिया के सीईओ अमिताभ बेहर ने कहा कि अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई तब तक नहीं कम होगी, जब तक सरकार की तरफ से इसको लेकर ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं। उन्होंने कहा कि असमानता दूर करने के लिए सरकार को गरीबों के लिए विशेष नीतियां अमल में लानी होगी।
हमारे देश में जरूरत यह नहीं है कि चंद लोगों के हाथों में ही बहुत सारी पूंजी इकट्ठी हो जाये, पूंजी का वितरण ऐसा होना चाहिए कि विशाल देश के लाखों गांवों को आसानी से उपलब्ध हो सके। लेकिन क्या कारण है कि महात्मा गांधी को पूजने वाले सत्ताशीर्ष का नेतृत्व उनके ट्रस्टीशीप के सिद्धान्त को बड़ी चतुराई से किनारे कर रखा है। यही कारण है कि एक ओर अमीरों की ऊंची अट्टालिकाएं हैं तो दूसरी ओर फुटपाथों पर रेंगती गरीबी। एक ओर वैभव ने व्यक्ति को विलासिता दी और विलासिता ने व्यक्ति के भीतर क्रूरता जगाई, तो दूसरी ओर गरीबी तथा अभावों की त्रासदी ने उसके भीतर विद्रोह की आग जला दी। वह प्रतिशोध में तपने लगा, अनेक बुराइयां बिन बुलाए घर आ गईं। इसी से आतंकवाद जनमा। आदमी-आदमी से असुरक्षित हो गया। हिंसा, झूठ, चोरी, बलात्कार, संग्रह जैसे निषेधात्मक संस्कारों ने मनुष्य को पकड़ लिया। चेहरे ही नहीं चरित्र तक अपनी पहचान खोने लगे। नीति और निष्ठा के केंद्र बदलने लगे। आस्था की नींव कमजोर पड़ने लगे।
अर्थ की अंधी दौड़ ने व्यक्ति को संग्रह, सुविधा, सुख, विलास और स्वार्थ से जोड़ दिया। समस्या सामने आई-पदार्थ कम, उपभोक्ता ज्यादा। व्यक्तिवादी मनोवृत्ति जागी। स्वार्थों के संघर्ष में अन्याय और शोषण होने लगा। हर व्यक्ति अकेला पड़ गया। जीवन आदर्श थम से गए। नई आर्थिक प्रक्रिया को आजादी के बाद दो अर्थों में और बल मिला। एक तो हमारे राष्ट्र का लक्ष्य समग्र मानवीय विकास के स्थान पर आर्थिक विकास रह गया। दूसरा सारे देश में उपभोग का एक ऊंचा स्तर प्राप्त करने की दौड़ शुरू हो गई है। इस प्रक्रिया में सारा समाज ही अर्थ प्रधान हो गया है।
इस प्रक्रिया में सारी सामाजिक मान्यताओं, मानवीय मूल्यों, मर्यादाओं को ताक पर रखकर कैसे भी धन एकत्र कर लेने को सफलता का मानक माने जाने लगा है जिससे राजनीति, साहित्य, कला, धर्म सभी को पैसे की तराजू पर तोला जाने लगा है। इस प्रवृत्ति के बड़े खतरनाक नतीजे सामने आ रहे हैं। अब तक के देश की आर्थिक नीतियां और विकास का लक्ष्य चंद लोगों की समृद्धि में चार चांद लगाना हो गया है। चंद लोगों के हाथों में समृद्धि को केन्द्रित कर भारत को महाशक्ति बनाने का सपना भी देखा जा रहा है। संभवतः यह महाशक्ति बनाने की बजाय हमें कमजोर राष्ट्र के रूप में आगे धकेलने की तथाकथित कोशिश है।
समृद्धि हर युग का सपना रहा है और जीवन की अनिवार्यता में इसे शामिल भी किया जाता रहा है। सापेक्ष दृष्टि से सोचे तो समृद्धि बुरी नहीं है लेकिन बुरी है वह मानसिकता जिसमें अधिसंख्य लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं को लील कर कुछ लोगों को उनके शोषण से अर्जित वैभव पर प्रतिष्ठित किया जाता है। बुरा है समृद्धि का वह वैभव प्रदर्शन जिसमें अपराधों को पनपने का खुला अवसर मिलता है। अपनों के बीच संबंधों में कड़वाहट आती है, ऊंच-नीच की भेद-रेखा खींचती है। आवश्यकता से ज्यादा संग्रह की प्रतिस्पर्धा होती है। अनियंत्रित मांग और इंद्रिय असंयम व्यक्ति को स्वच्छन्द बना देता है। हिंसा और परिग्रह के संस्कार जागते हैं। मनुष्य के सुख-दुख, आशाएं-आकांक्षाएं, आचार-विचार वैयक्तिक होते हुए भी समाज के साथ संपृक्त है। जंगल के निरंकुश जीवन से निकलकर जबसे मनुष्य ने दूसरों से हिल-मिलकर जीना सीखा है, तबसे यही स्थिति चली आती है, यही सामाजिक सभ्यता की पहली शर्त भी है। पड़ोस से कराह उठकर आती हो तो कोई हृदयहीन व्यक्ति ही चैन की नींद सो सकता है। पड़ोस में कोई भूख से बेहाल हो रहा हो तो भोजन से भरी थाली का स्वाद फीका पड़ जाता है। लेकिन यह बात कोई अंबानी, अडानी के समझ से परे है।
समृद्धि को हम भले ही जीवन विकास का एक माध्यम माने लेकिन समृद्धि के बदलते मायने तभी कल्याणकारी बन सकते हैं जब समृद्धि के साथ चरित्र निष्ठा और नैतिकता भी कायम रहे। शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधन अपनाने की बात इसीलिए जरूरी है कि समृद्धि के रूप में प्राप्त साधनों का सही दिशा में सही लक्ष्य के साथ उपयोग हो। संग्रह के साथ विसर्जन की चेतना जागे। किसी व्यक्ति विशेष या व्यापारिक-व्यावसायिक समूह को समृद्ध के अमाप्य शिखर देने की बजाय संतुलित आर्थिक समाज की संरचना को विकसित करना होगा।
समृद्धि की बदलती फिजाएं एवं आर्थिक संरचनाएं अमीरी-गरीबी की खाई को पाटे। आज कहां सुरक्षित रह पाया है-ईमान के साथ इंसान तक पहुंचने वाली समृद्धि का आदर्श? कौन करता है अपनी सुविधाओं का संयमन? कौन करता है ममत्व का विसर्जन? कौन दे पाता है अपने स्वार्थों को संयम की लगाम? और कौन अपनी समृद्धि के साथ समाज को समृद्धि की ओर अग्रसर कर पाता है? भारतीय मनीषा ने ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’’ का मूल-मंत्र दिया था-अर्थात् सब सुखी हों, सब निरोग हों, सब समृद्ध हो। गांधीजी ने इसी बात को अपने शब्दों में इस प्रकार कहा था, ‘‘जब तक एक भी आंख में आंसू है, मेरे संघर्ष का अंत नहीं हो सकता।’’ व्यक्ति को अपने जीवन में क्या करना चाहिए, जिससे वह स्वयं सुखी रहे, दूसरे भी सुखी रहें। इसके कई उपाय हो सकते हैं, क्योंकि मानव-जीवन के कई पहलू हैं, लेकिन गोस्वामी तुलसीदास ने मनुष्य के सबसे बड़े धर्म की व्याख्या करते हुए लिखा है- ‘‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई।’’ भले हमारे पास कार, कोठी और कुर्सी न हो लेकिन चारित्रिक गुणों की काबिलियत अवश्य हो क्योंकि इसी काबिलियत के बल पर हम अपने आपको महाशक्तिशाली बना सकेगे अन्यथा हमारे देश के शासक जिस रास्ते पर हमें ले जा रहे हैं वह आगे चलकर अंधी खाई की ओर मुड़ने वाली हैं।
source https://krantibhaskar.com/necessary-brainstorming-on-unbalanced-economic-structure/
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