विशेष। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यक्रम ‘मन की बात’ में देश की युवापीढ़ी के मन को समझने एवं समझाने की कोशिश की। परिवर्तन की लहर विकास की नाव पर सवार है, लेकिन परिवर्तन के बहुरंगी, विविध आयामी पक्षों के बीच जाते हुए वर्ष में युवा-आक्रोश का उभरना या उभारने के षडयंत्रपूर्ण दृश्यों को समझना जरूरी है, ताकि हम समझ पाएं कि आगे बढ़ते देश के निर्माण में युवा सहभागिता कितनी और किस हद तक महत्वपूर्ण है। हाल के राजनीतिक परिदृश्यों ने राममंदिर, अनुच्छेद 370, तीन तलाक कानून, एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) की संभावना कोे पूरजोर तरीके से प्रकट किया है और इन मुद्दों पर युवा-सोच भी नये तेवरों के साथ सामने आयी है। युवा-सोच में राजनीति को व्यक्ति नहीं, विचार और विश्वास आधारित बनाना होगा। चेहरा नहीं, चरित्र को प्राथमिकता देनी होगी।
मोदी ने जो कुछ कहा उससे और खासकर इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि आज के युवा व्यवस्था, अनुशासन एवं पारदर्शिता को पसन्द करते हैं और वे न केवल उसका पालन करते हैं, बल्कि यदि सिस्टम ढंग से काम न करे तो सवाल भी करते हैं, रोष भी व्यक्त करते हैं। वास्तव में हम सब भारत की उस युवा पीढ़ी का उभार देख भी सकते हैं जो न केवल नियम-कायदों के हिसाब से चलना पसंद कर रही है, बल्कि यह भी चाह रही है कि अन्य सभी ऐसा करें। राजनीतिक अपराधीकरण, आतंकवाद एवं बेरोजगारी को लेकर सबसे ज्यादा युवा परेशान है, हालांकि आर्थिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार की चिंता भी उन्हें परेशान किए हुए है। हमारे देश में सरकारी मशीनरी एवं राजनीतिक व्यवस्थाएं सभी रोगग्रस्त हैं। वे अब तक अपने आपको सिद्धांतों और अनुशासन में ढाल नहीं सके। कारण राष्ट्र का चरित्र कभी इस प्रकार उभर नहीं सका। युवापीढ़ी देश की राजनीति में पारदर्शिता एवं नैतिकता चाहती है, यही कारण है कि नरेन्द्र मोदी की नीतियों को इसी युवापीढ़ी ने सबसे ज्यादा बल दिया एवं पसन्द किया है।
मन की बात में युवाओं से मुखातिब होकर मोदी ने न केवल अपने मन की बात कही बल्कि देश के नवनिर्माण की आवश्यकता व्यक्त की। किसी भी देश की ऐसी युवा पीढ़ी व्यवस्था को बदलने के साथ ही उस माहौल का निर्माण करने में भी सहायक बनती है, जो पुराने ढर्रे को बदलने के लिए आवश्यक होता है। विडंबना यह है कि कुछ लोग और खासकर नेताओं का एक वर्ग अभी भी पुराने ढर्रे पर चलना पसंद कर रहा है। प्रश्न यह भी है कि राजनीतिक दल एवं राजनेता अपने ही युवाओं के जीवन से जुड़े बुनियादी मुद्दों को तवज्जों क्यों नहीं देती? भारतीय राजनीति की यह सबसे बड़ी कमजोरी रही है। शेक्सपीयर ने कहा था- ”दुर्बलता! तेरा नाम स्त्री है।“ पर आज अगर शेक्सपीयर होता तो इस परिप्रेक्ष्य में, कहता ”दुर्बलता! तेरा नाम भारतीय राजनीति है।“ आदर्श सदैव ऊपर से आते हैं। पर शीर्ष पर आज इसका अभाव है। वहां मूल्य बन ही नहीं रहे हैं, फलस्वरूप नीचे तक, साधारण से साधारण संस्थाएं, संगठनों और मंचों तक राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि और नफा-नुकसान छाया हुआ है। सोच का मापदण्ड मूल्यों से हटकर राजनीतिक निजी हितों पर ठहर गया है। राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की कहीं कोई आवाज उठती भी है तो ऐसा लगने लगता है कि यह विजातीय तत्व है जो हमारे जीवन में घुस रहा है। यही कारण है कि व्यवस्था में बदलाव और सुधार की कोशिशों का विरोध होते हुए दिखता है। यह विरोध वे लोग करते हैं जो भाई-भतीजावाद, परिवारवाद और अपारदर्शी व्यवस्था के पोषक हैं। इनका बस चले तो वे शायद कोटा-परमिट वाली व्यवस्था को फिर से लागू करने की वकालत करने लगें। सच तो यह है दबे-छिपे स्वरों में यह वकालत होती भी है।
प्रधानमंत्री ने यह सही कहा कि आने वाले दशक को गति देने में वे लोग ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाएंगे जिनका जन्म इक्कीसवीं सदी में हुआ है। इससे इन्कार नहीं कि बीते वर्षों में व्यवस्था के स्तर पर काफी कुछ बदला है, लेकिन यह भी सही है कि अभी बहुत कुछ बदले जाने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति में सजग और अनुशासनप्रिय युवाओं की एक बड़ी भूमिका रहने वाली है। कुशलता बढ़ाने पर बेहतर ध्यान देना चाहिए ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा में टिक सकें। सरकार को भ्रष्टाचार दूर करना चाहिए। कर-नीतियों में विषमता की दर कम होनी चाहिए। इस तरह जो अतिरिक्त राजस्व प्राप्त हो उसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक सुरक्षा सुधारने के लिए करना चाहिए। क्या देश मुट्ठीभर राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों की बपौती बनकर रह गया है? चुनाव प्रचार करने हैलीकाॅप्टर से जाएंगे पर उनकी जिंदगी संवारने के लिए कुछ नहीं करेंगे। तब उनके पास बजट की कमी रहती है। लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर ऐसे बहुत धब्बे हैं, अंधेरे हैं, वहां मुखौटे हैं, गलत तत्त्व हैं, खुला आकाश नहीं है। मानो प्रजातंत्र न होकर सज़ातंत्र हो गया। क्या इसी तरह नया भारत निर्मित होगा? राजनीति सोच एवं व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हो ताकि अब कोई गरीब नमक और रोटी के लिए आत्महत्या नहीं करें और किसी युवा के सपनें आधे-अधूरे न रह जायें।
भारत की युवापीढ़ी मौलिकताप्रिय है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति दूसरों की नकल कर आज तक महान् नहीं बन सका। सफलता का अनुकरण नहीं किया जा सकता। मौलिकता अपने आप में एक शक्ति है जो व्यक्ति की अपनी रचना होती है एवं उसी का सम्मान होता है। संसार उसी को प्रणाम करता है जो भीड़ में से अपना सिर ऊंचा उठाने की हिम्मत करता है, जो अपने अस्तित्व का भान कराता है। नरेन्द्र मोदी को इसीलिये युवा पसन्द करते हैं कि उन्होंने मौलिकता के शिखर गढ़े हैं। मौलिकता की आज जितनी कीमत है, उतनी ही सदैव रही है। जिस व्यक्ति के पास अपना कोई मौलिक विचार है तो संसार उसके लिए रास्ता छोड़ कर एक तरफ हट जाता है और उसे आगे बढ़ने देता है। मौलिक विचारक तथा काम के नये तरीके खोज निकालने वाला व्यक्ति ही समाज की सबसे बड़ी रचनात्मक शक्ति होता है। अन्यथा ऐसे लोगों से दुनिया भरी पड़ी है जो पीछे-पीछे चलना चाहते हैं और चाहते हैं कि सोचने का काम कोई और ही करे।
चलते व्यक्ति के साथ कदम मिलाकर नहीं चलने की अपेक्षा उसे अडं़गी लगाते हैं। सांप तो काल आने पर काटता है पर दुर्जन तो पग-पग पर काटता है। यह निश्चित है कि सार्वजनिक जीवन में सभी एक विचारधारा, एक शैली व एक स्वभाव के व्यक्ति नहीं होते। अतः आवश्यकता है दायित्व के प्रति ईमानदारी के साथ-साथ आपसी तालमेल व एक-दूसरे के प्रति गहरी समझ की। संभवतः युवाओं की इसी भूमिका को रेखांकित करने के लिए प्रधानमंत्री ने यह कहा कि देश के युवाओं को अराजकता, अव्यवस्था आदि से चिढ़ है और वे परिवारवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिक संकीर्णता को पसंद नहीं करते। इसका सीधा मतलब है कि युवाओं को अराजकता से दूर रहने के साथ ही उन शक्तियों से सतर्क रहने की भी जरूरत है जो उन्हें गुमराह करती हैं। ईमानदार होना आज अवगुण है। अपराध के खिलाफ कदम उठाना पाप हो गया है। धर्म और अध्यात्म में रुचि लेना साम्प्रदायिक माना जाने लगा है। किसी अनियमितता का पर्दाफाश करना पूर्वाग्रह माना जाता है। सत्य बोलना अहम् पालने की श्रेणी में आता है। साफगोही अव्यावहारिक है। भ्रष्टाचार को प्रश्रय नहीं देना समय को नहीं पहचानना है। आखिर नयी गढ़ी जा रही ये परिभाषाएं समाज और राष्ट्र को किन वीभत्स दिशाओं में धकेल रही है? विकासवाद की तेज आंधी के बावजूद हमारा देश, हमारा समाज तरह-तरह के बंधनों में आज भी जकड़ा हुआ है। उसमें न आत्मबल है, न नैतिक बल। सुधार की, नैतिकता की बात कोई सुनता नहीं है। दूर-दूर तक कहीं रोशनी नहीं दिख रही है। बड़ी अंधेरी रात है। इन जटिलताओं के बीच युवा-भूमिका अधिक महत्वपूर्ण है, रोशनी के लिये युवाओं को ही नन्हें-नन्हें दीपक बनना होगा।
प्रेषकः
– ललित गर्ग-
source https://krantibhaskar.com/mann-ki-baat-on-the-role-of-youth/
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